Thursday 6 June 2013

 सिंघासन खाली करो की जनता आती हैं 

सदियों की ठंडी बुझी राख सुगबुगा उठी,

मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती हैं,

दो राह, समय के रथ का घर्घर नाद सुनो,

सिंघासन खाली करो की जनता आती हैं ।

जनता? हाँ, मिट्टी की अबोध मुरते वही,

जाड़े-पाले की कसक सदा सहने वाली,

जब अंग अंग में लगे साँप हो चूस रहे,

तब भी न मुँह खोल दर्द कहने वाली ।

लेकिन, होता भूडोल, बवंडर उठते हैं,

जनता जब कोपकुल हो भृकुटी चढ़ती हैं,

दो राह, समय के रथ का घर्घर नाद सुनो,

सिंघासन खाली करो की जनता आती हैं ।

हुँकारों से महलों की नीव उखड जाती,

साँसों के बल से ताज हम में उड़ता हैं,

जनता की रोके राह समय में ताब कहाँ?

वह जिधर चाहती, काल उधर ही मुड़ता हैं ।

सबसे विरत जनतंत्र जगत का आ पहुँचा,

तैंतीस कोटि-हित सिंघासन तैयार करों,

अभिषेक आज रजा का नहीं, प्रजा का हैं,

तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो ।

आरती लिए तू किसे ढूंढ़ता हैं मुरख,

मंदिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में

देवता कही सड़कों पर मिट्टी तोंड रहे,

देवता मिलेंगे खेतों में खलिहानों में ।

फावड़े और हल राजदंड बनाने को हैं,

धूसरता सोने से शृंगार सजाती हैं,

दो राह, समय के रथ का घर्घर नाद सुनो,

सिंघासन खाली करो की जनता आती हैं ।

                                                               -  रामधारी सिंह 'दिनकर'


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